जो आत्मा का परतंत्र करता है। संसार में परिभ्रमण करता है। उसे कर्म कहते है।
कर्म के मूल दो भेद है: द्रव्य कर्म और भाव कर्म
द्रव्य कर्म के दो भेद हैं: घातियां कर्म और अघातिया कर्म
ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय, अन्तराय ये घातिया कर्म है।
वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र ये अघातिया कर्म है।
जो आत्मा गुणों का पूर्ण रूप से घात करते हैं उन्ह घातियां कर्म कहते है।
जो आत्मा के गुणों का पूर्ण रूप से घात नहीं करते, उन्हें अघातिया कर्म कहते है।
जो आत्मा के ज्ञान गुणों को ढकता है उसे ज्ञानावरणी कर्म कहते है।
ज्ञान, दान न देना, जिनवाणी का, ज्ञानियों का अपमान करने से ज्ञानावरणी कर्म का बंध होता है।
जो आत्मा के दर्शन गुण का घात करते है उसे दर्शनावरणी कर्म कहते है।
जो सुख, दुःख देता है उसे वेदनीय कर्म कहते है।
जो आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्र गुण का घात करता है उसे मोहनीय कर्म कहते है।
जिस कर्म के उदय से जीव विभिन्न गतियों से रुका रहता है उसे आयु कर्म कहते है।
जिस कर्म के उदय से शरीर और अंगोउपांग की रचना ही होती है उसे नाम कर्म कहते है।
जिस कर्म के उदय से जीव उच्च नीच कुल में पैदा होता है उसे गोत्र कर्म कहते है।
जो दान, लाब, भोग, उपभोग बीर्य में विघ्न डालता है उसे अन्तराय कर्म कहते है।
जिसके माध्यम से जिनवाणी का ज्ञान होता है उसे अनुयोग कहते है।
अनुयोग चार होते है: प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चारणनुयोग और द्रव्यानुयोग।
जिसमें ६३ शलका पुरुषों का जीवन चरित्र वर्णित रहता है उसे प्रथमानुयोग कहते है।
महापुराण, पदमपुराण, यशोधर चारित्र, हरिवंशपुराण, वर्धमान चारित्र, शांतिनाथ पूरण आदि।
प्रथमानुयोग पढने से बोधि समाधि, परिणाम शुद्धि, संसार विरक्ति व् पुण्य-पाप ज्ञान होता है।
जिसमे लोक, अलोक, गति, षटकाल परिवर्तन, जीवों के परिणामों का वर्णन होता है।
त्रिलोक सार, गोमट सार, त्रिलोक प्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, षटखंड्गम आदि।
जिसमे श्रावक व् मुनियों के चारित्र का वर्णन होता है उसे चरणानुयोग कहते है।
मूलाचार, भगवती आराधना, सागर धर्ममृत आदि।